
सी किंग हेलीकॉप्टर, नौसेना के शस्त्रागार की सूची में सबसे शक्तिशाली हथियार प्लेटफार्मों में से एक है। इस बहुपयोगी व उन्नत बहु-भूमिका वाले वायुयान ने देश के तट से काफी दूर के युद्ध क्षेत्र के आधुनिक समुद्री संग्राम के तौर सूत्रपात किया है। आईएनएएस 330 का कमीशन कमांडर एमपी वधावन की कमान में 17 अप्रैल, 1971 को किया गया था। यह स्क्वाड्रन शुरू में ब्रिटिश वेस्टलैंड हेलीकाप्टर लिमिटेड से अर्जित सी किंग एमके 42 एएसडब्ल्यू हेलीकॉप्टरों से सुसज्जित था।
पहला सी किंग हेलीकॉप्टर 26 जुलाई, 1971 को आईएनएस विक्रांत पर उतारा गया। तब से हार्पून एवं 'मदर' (वाहक) की अदम्य टीम में प्रथम श्रेणी की श्रृंखला देखी गई। पहले प्रचालनात्मक एएसडब्लू मिशन ने 18 अक्तूबर, 1971 को उड़ान भरी जब 31 नवंबर, 1971 को 'अग्रिम स्क्रीन' पर सी किंग ने संदिग्ध पनडुब्बी के संपर्क को पकड़ा एवं पहली बार निशाना साधकर हमला किया। वर्ष 1971 में जब युद्ध की ज्वाला भड़की तो हार्पून को अग्नि का नाम दिया गया। परिस्थिति को देखते हुए सघन एएसडब्ल्यू अभियान चलाए गए एवं हार्पून आसन्न युद्ध को देखते हुए निरंतर 156 घंटे तक मंडराता रहा। उस दशक में हार्पूनों का आईएनएस विक्रांत से एकमात्र फ्रंट लाइन कैरियर बोर्न रोटरी विंग स्क्वाड्रन के तौर पर परिचालित होना जारी रहा एवं इसने बहुपयोगी व सबसे घातक हेलीकॉप्टर होने का सम्मान व ख्याति अर्जित की। उन्नत किस्म के सेंसर से युक्त व नौपरिवहन-भेदी हमलों की क्षमता रखने वाले सी किंग42बी की खरीद से इस स्क्वाड्रन को और भी अधिक मजबूती मिली।

एएसडब्ल्यू में मंडराता सी किंग एमके 42 बी
अक्तूबर, 1995 में इस स्क्वाड्रन को आईएनएस गरुड़ से एनएएस कुंजली में स्थानांतरित कर दिया गया जो तब से वहीं पर स्थित है। हार्पून हमेशा की तरह निरंतर बेड़े की आंख व कान बना हुआ है। ‘उड़ने वाला युद्धपोत’ के नाम को चरितार्थ करता हुआ सी किंग, आईएनएस विराट, गोदावरी एवं ब्रह्मपुत्र क्लास के पोतों से परिचालित होते समय निरंतर फोर्स मल्टीप्लायर के तौर पर काम कर रहा है। पोत से होने वाली उड़ानें सभी मौसमों में चाहे दिन हो या रात, निरंतर नाना प्रकार के मिशनों को पूरा कर रही हैं।